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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 20 

स्वर्ग लोक में जब यह समाचार आया कि जयंती की मृत्यु हो गई है तो वहां पर शोक की लहर व्याप्त हो गई । शची तो मूर्छित ही हो गई थी । किसी को भी इस समाचार पर विश्वास नहीं हो रहा था । एक तो बिना किसी रोग के इतनी कम आयु में देवयानी का काल के गाल में समाना किसी को पच नहीं रहा था उस पर शुक्राचार्य के पास मृत संजीवनी विद्या के होते हुए जयंती को पुनः जीवित नहीं कर पाना एक रहस्य बना हुआ था । कोई कह रहा था कि शुक्राचार्य ने ऐसे ही अफवाह उड़ाई है कि उन्हें मृत संजीवनी विद्या मिल गई है जबकि वास्तव में ऐसा कुछ है ही नहीं । एक कहता कि शुक्राचार्य जयंती को पुनः जीवित करना चाहते ही नहीं थे । जयंती देवराज इन्द्र की पुत्री थी और शुक्राचार्य दानवों के गुरू । तो वे जयंती को क्यों जीवित करते ? तरह तरह की बातें उड़ने लगी । बातों के पंख नहीं होते लेकिन वे पंख वाले पक्षियों से भी तेज उड़ती हैं । छोटे छोटे समूहों में देवता , गन्धर्व, अप्सराऐं बातें कर रहे थे । कोई विधाता को दोष दे रहा था तो कोई शुक्राचार्य को । जयंती से हर किसी की सुहानुभूति थी । 

शची के महल में भगदड़ का सा माहौल था । देवराज इन्द्र का पारा सातवें आसमान पर था । इतने आवेश में पहले नहीं देखा था उन्हें किसी ने । आंखें अंगारे बरसा रही थीं । भुजाऐं फड़क रही थीं और वे रह रहकर हवा में मुठ्ठी तानकर घुमाते थे जैसे कि यदि सामने शुक्राचार्य होते तो वे उन पर आक्रमण कर देते । 
"मुझे तो शुक्र पर पहले से ही संदेह था पर जयंती की वजह से मैं कुछ बोल नहीं पाया था । दैत्यों का गुरू देवराज की कन्या का ध्यान क्यों रखेगा ? अब उसके कलेजे का कांटा निकल गया है तो अब बड़ा खुश हो रहा होगा वह" । देवराज के स्वर में घृणा भरी हुई थी 
"आप तो बिना सोचे विचारे ऐसे ही कुछ भी कह देते हैं" इन्द्राणी बोली "आखिर वे हमारे जामाता हैं वे ऐसा क्यों करेंगे ? रही बात मृत संजीवनी विद्या की तो उसमें कुछ ऐसी बात रही होगी जो जयंती को पुनः जीवित करने में बाधा बन रही होगी । जब तक समस्त बात की जानकारी नहीं हो जाये तब तक सुनी सुनाई बातों के आधार पर हमें कुछ नहीं कहना चाहिए" शची इन्द्र को समझाने का प्रयास करने लगी 
"आप तो सरल स्वभाव की हैं इसलिए इन दैत्यों को नहीं जानती हैं । ये दैत्य बड़े षड्यंत्रकारी होते हैं । और शुक्राचार्य तो दैत्यों के गुरू हैं यानि षड्यंत्र की प्रतिमूर्ति । फिर आप ही बताओ, जयंती की मृत्यु कैसे हुई  ? शुक्राचार्य पर शक तो बनता है ना" ? इन्द्र अपने मत पर कायम रहे । 
"एक बार हम चलकर बात कर लें जामाता जी से ? उनके दिल की बात भी पता चल जाएगी और जमाने की निगाह में हम शोक के अवसर पर उनके साथ खड़े भी नजर आ जाऐंगे । चलो, चलते हैं उनसे मिलने" । शची चलने को उद्यत होते हुए बोली । 
"कोई आवश्यकता नहीं है मृत्यु लोक में चलने की । ये शुक्राचार्य पता नहीं क्या कर बैठे ? उसका व्यक्तित्व रहस्यमय है । हमें दैत्यों के गढ में घुसकर खतरा नहीं उठाना चाहिए । हमें जानबूझकर मौत के गड्ढे में कूदना नहीं चाहिए" इन्द्र ने सलाह दी । 
"आप सदैव गलत ही सोचते हैं । और कुछ नहीं तो कम से कम देवयानी के बारे में तो सोचो ? वह नन्ही सी बच्ची कैसे रह पाएगी ? चलो, चलकर उसे ले आते हैं" । शची अभी भी समझाने का प्रयत्न करने लगी । 
"तुम अपना ज्ञान अपने पास ही रखो और मुझे अपने हिसाब से काम करने दो । मैं देखता हूं कि अब शुक्राचार्य कैसे रहता है ? मैं उसे सुखपूर्वक नहीं रहने दूंगा । आज से ही मेरा रौद्र रूप देखना तुम" । इन्द्र वहां से चला गया । 

इन्द्र ने अग्नि देव को बुलवाया । अग्निदेव दौड़े दौड़े आये । 
"शुक्राचार्य ने मेरी पुत्री जयंती का जीवन बरबाद कर दिया है अग्निदेव । उसे मृत्यु के मुंह में फेंक दिया है । मैं प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा हूं । मन करता है कि अभी दैत्यों पर चढाई कर दूं मगर अभी यह समय युद्ध के अनुकूल नहीं है । इसलिए आप जाइए और इतना काम कर आओ कि शुक्राचार्य का आश्रम जलकर भस्म हो जाये । उनका आश्रम जलकर खाक हो जाए, यह सुनिश्चित करके आ जाना । जाओ और वापस आकर मेरे दग्ध हृदय को शीतल करने वाला समाचार सुनाओ" इन्द्र ने आज्ञा दे दी । 

इन्द्र के आदेश पर अग्निदेव अपने बदन में भयंकर लपटें उठाकर चले । शुक्राचार्य के आश्रम में पहुंच कर वे पर्णजनित छप्पर पर बैठ गये । अग्निदेव का संपर्क पाकर वह छप्पर धू धूकर जलने लगा । कुटिया को जलते देखकर शिष्य और साध्वी चिल्ला कर कुटिया से बाहर भागे । कुछ शिष्य अंदर ही रह गये । आग ने भीषण रूप धारण कर लिया । संपूर्ण आश्रम धू धूकर जलने लगा । 

शुक्राचार्य वहां नहीं थे । शिष्यों ने देवयानी को सकुशल बचा लिया । इस भयंकर अग्निकांड में दस बारह शिष्य जलकर भस्म हो चुके थे । जब शुक्राचार्य कुटिया में आये तब उन्होंने आग का दावानल देखा पर तब तक सब कुछ जलकर राख हो चुका था । 
"ये आग कैसे लगी" ? दहाड उठे शुक्राचार्य । उनके क्रोध को देखकर सभी शिष्य सहम गए । गुरुजी को पहले कभी इतने क्रोध में नहीं देखा था । एक सन्नाटा सा छाया हुआ था वहां पर । जब किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तब उन्होंने अपने तप के प्रभाव से जान लिया कि ये कार्य अग्निदेव का है । वे चिंघाड़ उठे । उनका क्रोध सातवें आसमान पर था । कुल 12 शिष्य जलकर मर गये थे । 

उन्होंने भगवान आशुतोष का ध्यान लगाया और उनके मुंह से मृत संजीवनी विद्या के मंत्र निकलने लगे । एक एक कर उनके शिष्य जीवित होकर उनके समक्ष आने लगे । समस्त 12 शिष्य जीवित होकर उनके सामने पंक्तिबद्ध खड़े होकर उनकी स्तुति करने लगे । 

शुक्राचार्य के नेत्र खुले । अपने शिष्यों को पुनर्जीवित देखकर वे अत्यंत हर्षित हुए जैसे भगवान अपने भक्त को पाकर प्रसन्न होते हैं । समस्त शिष्यों ने शुक्राचार्य के चरण स्पर्श किए और शुक्राचार्य ने उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिए । शुक्राचार्य का तन मन प्रफुल्लित हो गया । मृत संजीवनी विद्या कार्य करने लगी थी । उन्होंने भगवान शिवशंकर का बहुत बहुत आभार प्रकट किया । उन्हें समझ में आ गया था कि परमार्थ के लिए ही मृत संजीवनी विद्या कार्य करेगी निजी स्वार्थ के लिए नहीं । 

यह समाचार जंगल में आग की तरह फैल गया । देवताओं ने भी यह समाचार सुना । उनके मुख मलिन हो गये । अग्निदेव के सारे प्रयासों पर पानी फिर गया था । शुक्राचार्य द्वारा प्राप्त मृत संजीवनी विद्या का अनुपम उदाहरण सामने ही था । अब किसी को कोई शंका नहीं रही । इस एक घटना ने दानवों और दैत्यों में आशा का संचार कर दिया परन्तु इससे देवता भयभीत हो गये । 

क्रमश : 
श्री हरि 
13.5.23 

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2 Comments

Gunjan Kamal

14-May-2023 06:54 AM

बहुत खूब

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Hari Shanker Goyal "Hari"

14-May-2023 11:18 PM

🙏🙏

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